मनुष्य को स्वयं अपने संस्कारों के प्रति सचेत रहकर विपरीत प्रभावोत्पादक कारणों का समय पर शमन करना उचित है- आचार्य इंद्र नंदी महाराज,समाधिस्थ मुनि विनीत नंदी महाराज की विनयांजलि सभा संपन्न

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रिपोर्ट रामबिलास जोशी

फागी। डिग्गी उप तहसील मुख्यालय पर स्थित अग्रवाल सेवा सदन परिसर में रविवार को परम पूज्य आचार्य इंद्र नंदी महाराज ससंघ के पावन सानिध्य में समाधिस्थ मुनि विनीत नंदी महाराज को भावपूर्ण विनयांजलि सभा संपन्न हुई।विनयांजलि सभा में उपस्थित जैन समाज के लोगो ने आचार्य विनीत नंदी महाराज को भावपूर्ण विनयांजलि व्यक्त करते हुए श्रदा सुमन अर्पित किए गए। रविवार को प्रात 8 बजे आचार्य श्री स संघ के निर्देशन में समाधिस्थ मुनि की निषधा का परिवार जनों ने शिलान्यास करते हुए मुनि श्री की चरण छत्री का बनाने का संकल्प लिया। श्रद्राजंलि सभा में अग्रवाल समाज चौरासी के अध्यक्ष हुकूम चंद जैन, कोषाध्यक्ष गोविंद नारायण जैन,वर्षायोग समिति अध्यक्ष महावीर प्रसाद सुराशाही, महामंत्री विमल कुमार जैन,प्रकाश चंद, महावीर गोयल,सीताराम, राधेश्याम निवाई, भाग चंद रावका,वर्धमान काला,हरिशंकर गर्ग, लाल चंद निवाई,ज्ञान चंद जैन, ब्लाक अध्यक्ष शांति लाल जैन,सहित महिला मंडल डिग्गी,बालिका मंडल डिग्गी समेत साधर्मी बंधु जन उपस्थित रहे।श्रद्राजंलि सभा में सभी लोगों ने मुनि श्री के जीवन परिचय पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए उनकी संयम साधना के बारे में विचार प्रकट कर श्रद्राजंलि ज्ञापित की।इस मौके पर आचार्य इंद्र नंदी महाराज ने उपस्थित लोगों को अपने प्रवचन के माध्यम से बताया कि मानव जीवन बड़ी दुर्लभता से प्राप्त होता है,जिसको हमेशा सार्थक कार्यों में ही व्यतीत करना चाहिए।

साथ ही मानव को अपने जीवन में संयम को धारण करते हुए अंत समय में सल्लेखना पूर्वक समाधि मरण करने के भाव बनाने चाहिए। आचार्य इंद्र नंदी महाराज ने कहा कि व्यक्ति की सोच समझ और कार्य सब संस्कारों के फल-फूल है। इसीलिये संस्कार के महत्व को पहचाना हितकर होता है। जन्म के पूर्व संस्कारों का प्रभाव तो पड़ता ही है, जन्म के तुरंत बाद से एक एक कण उसके निर्माण में सहायक होते हैं ,वातावरण और संगति की प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष संवेदनाये और मानसिक प्रतिक्रियायें आरंभ में तीव्र गति से संपन्न होती है, जो स्थायी प्रकृति धारण कर लेती है। बाल्यावस्था में अचेतन मन पर आंतरिक और बाहय सभी संवेदनायें अंकित होती रहती हैं, इनकी प्रतिक्रिया संसार का आकार ग्रहण करने में सहायक बनती है। मनुष्य को स्वयं अपने संस्कारों के प्रति सचेत होकर विपरीत प्रभावोत्पादक कारणों का समय पर शमन करना उचित है।

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